जाने किसने किया था क़त्ल और मैं कातिल हुआ,
चश्मदीदी हलफनामा कोर्ट में दाखिल हुआ,
गया था मातमपूर्सी में, साथियों के साथ मैं,
लौटती में, क़त्ल के आरोप में शामिल हुआ.
माना, मैनें भी बार-बार गलती बहुत भारी की,
हुक्मरां को ललकारता हर वक्त मैंने पंगा लिया,
पर हूँ मैं लाचार फितरत से तो फिर अब क्या करूँ,
सच के लिए, हर हाल में अन्याय से भिड़ता रहा.
न सुना, न आगे सुनेंगे एफ.आई.आर. इस तरह का
आज तक लिखित या अलिखित एफ.आई.आर. होता रहा,
पर अजूबा प्रतिवेदन इस केस में शामिल हुआ,
घंटों बाद चवालीस पेजी टंकित एफ.आई.आर. दाखिल हुआ.
जिस समय जी.कृष्णैया मारे गए मुजफ्फरपुर में,उसी समय वायरलेस पर हम पकड़ाए हाजीपुर में,
रास्ते में आधा दर्जन थाने हैं, वायरलेस सहित
फिर बताओ कैसे पहुंचा उड़ कर हाजीपुर मैं?
नहीं पूछा किसी ने आजतक, तह में पहुँच इस बात को
और न ही उघेड़ा, इस सच्चाई के एहसास को,
जब जल रहा पूरा शहर, सामूहिक हत्या के खिलाफ
तो डीएम गोपालगंज ही मुजफ्फरपुर क्यों गया?
आरोप हम पर है कि हमने भडकाऊ भाषण दिया,
हजारों की भीड़ को, ध्वनि विस्तारक बिना संबोधित किया,
साथ चलते सैंकडों विधि-व्यवस्था के संवेदकों,
या कि चंद फर्लांग पर सदर थाना में अफसरों!
तुम वहाँ थे ऊँघते, या कर्तव्यविमूढ़ बैठे रहे?
माना हमने भडकाया और क़त्ल डीएम का हुआ,
और कोई मारकर स्पॉट से जाता रहा,
दर्जनों तैनात सशस्त्र बल थे, फिर क्या कर रहे?
हत्यारे क्यों न एक भी पकड़ाए या मरे गए?
यह भी एक इल्जाम है कि हमने भडकाया उसे वो कि जिस्सके हाथ में भरा हुआ पिस्तौल था
और जो कि मृतक का अपना सहोदर अनुज था,
बोलो ! जो कि पूर्व से, भरा हो प्रतिहिंसा की आग में,
क्या उसे भड़काने की जरूरत किसी को है भला?
यह तेरा आरोप डीएम को आक्रोशित भीड़ ने
ईंट, लाठी, पत्थरों से पीटकर मुर्दा किया,
फिर अराजक भीड़ से अवतरित भुटकुन कोई
कनपटी में तीन गोली मारकर चलता बना?
जांबाजो! तुम मेरे इस प्रश्न का उत्तर तो दो,
तुम्हारे ही इल्जाम को गर मुसल्सल मान लें,
तो बताओ, नृशंसता से क़त्ल डीएम का हुआ,
और तुम सब ‘मूकदर्शक’ गोलियाँ गिनते रहे?
पोस्टमार्टम में पिटाई के दाग सारे धुल गए,
पर माथे में गोलियों के सुराख बाक़ी मिल गए?
बच नहीं सकता जो मिनटों गोलियाँ खाने के बाद,
तो बताओ एस०के०एम०सी०एच० में किसका चला घंटों इलाज?
फिर ‘स्पेशल कोर्ट’ में ‘स्पेशल जज’ लाया गया,
दे दनादन ‘प्रमोशन’, ला यहाँ बिठाया गया,
‘त्वरित न्यायालय’ में ‘त्वरित’ सुनवाई शुरू हुई,
चार को आजीवन कारा, तीन को सजा फांसी हुई.
ड्राइवर, गार्ड, फोटोग्राफर चल रहे थे साथ-साथ,
नहीं सुनी इनमें किसी ने गोली की कोई आवाज,
और न ही बतलाया इनने हमारा नाम ही,
फिर भी आया फैसला-ऐतिहासिक लाजवाब?
कोर्ट में सोलह वर्षों लंबी कहानी यह चली,
डेढ़ दशकों बाद भी आधी गवाही ना मिली,
भूले से भी पेश न कर पाया कोई पब्लिक गवाह,
आखिरकार इस फैसले ने कर दिया दो घर तबाह.
जिसमें मैं था ही नहीं, उस गुनाह का मिला सिला,
कोई बताए, फैसले से बेचारी उमा को क्या मिला?
उठ गया साया बाप का उमा कृष्णैया के बच्चों के
या फिर बिन बाप के बच्चे लवली के ही भटके.
शोर डीएम का हुआ और केस दिल्ली तक गया,
रास्ते में रिहा, आजीवन, फाँसी का सिलसिला चला,
कोई बताए छोटन सहित उन निरपराधों का क्या हुआ?
सत्ताधीशों ने साजिशन जिसे मौत की नींद सुला दिया.
सबके लिए अगर देश का संविधान एक है,
‘क़ानून अपना काम करेगा’ यह इरादा नेक है,
डीएम और जन साधारण में गर नहीं कोई भेद है,
फिर पांच के संहार पर दशकों की चुप्पी, खेद है.
विस्फारित नेत्रों से देखा, दुनियां ने घिनौना यह कमाल,
निर्दोष कह जिसने मचाया था कभी भारी धमाल,
दोस्त वही सहयोग से, जब सत्ता में पहुंचा एक दिन,
तेरह वर्षों बाद फिर खुद चलाया ‘स्पीडी ट्राइल’.
न्याय की आँखों पर पट्टी, और खुदा-खुद मूक हो,
तो बताओ पीड़ित-वंचित किससे कहे अपनी व्यथा,
आहों और आसूओं में डूबेगी, एक दिन पूरी व्यवस्था,
जब ‘न्याय’, ईश्वर से उठेगी आमजन की आस्था.
सत्ता की साजिशों में जहाँ स्वयम फंसा भगवान है,
नीति-नियंता वह बना, जो खुद बड़ा बेईमान है, तर्कों-आरोपों में जूझता बेचारा-विवश इंसान है,
न्याय नहीं, यह फैसला है, इन्साफ का अपमान है.
‘न्याय की देवी’ ने बाँध रखी है, काली पट्टियाँ,
इन्साफ की चौखट, सच्चाई भर रही है सिसकियाँ,
बुराई है अट्टहास करती, रो रही अच्छाइयाँ,
क़ानून के पैरों तले जो कर रहा रूसवाइयाँ,
राज, धन, बल ठोकरों में उड़ाती इसकी धज्जियां.
कानूनविदों ने न्याय का सिद्धांत यह प्रतिपादित किया,
गुनाहगार सैंकड़ों छूट जाए, पर बेगुनाह कोई न फंसे
पांच हजार ‘क्रुद्ध भीड़’ का इल्जाम एक के सर चढ़ा,
फैसला जो आया सामने, उस पर रोयें या हँसे?
अच्छा होता देश में, जनतंत्र आता ही नहीं,
या अगर आता तो फिर प्रतिपक्ष होता ही नहीं,
फिर विपक्षी को न मिलती प्रतिरोध की ऐसी सजा,
सत्ताधीश ही लूटते, सत्ता का निष्कंटक मजा.
अंत में षड्यंत्रकारों! सुन लो कानें खोलकर,
दो सजाये मौत, या जिंदगी जेल में जाए गुजर,
चुप नहीं मैं बैठ सकता, पक्षपात, अन्याय पर,
बोलता, भिड़ता रहूँगा, ख़म औ’ छाती ठोककर.
(पूर्व सांसद आनन्द मोहन की ये कविता डीएम कृष्णैया हत्याकांड पर उनके विचारों पर आधारित है)
--आनंद मोहन,(पूर्व सांसद)
मंडल कारा, सहरसा.